डा. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति थे। उनका जीवन सार्वजनिक इतिहास है। वह सादगी, सेवा, त्याग और देशभक्ति के प्रतिमूर्ति थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में अपने आपको पुरी तरह से होम कर देने वाले राजेन्द्र बाबू अत्यंत सरल और गम्भीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वह सभी वर्ग के लोगो से सामान्य व्यवहार रखते थे। लगभग 80 वर्षो के उनके प्रेरक जीवन में साथ साथ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दुसरे चरण को करीब से जानने का एक बेहतर माध्यम उनकी आत्मकथा है।
डा. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के एक छोटे से गाँव जीरोदई में हुआ था। उनके पूर्वज सयुंक्त प्रान्त के अमोढ़ा नाम की जगह से पहले बलिया और फिर बाद में सारन (बिहार) के जीरोदाई आकर बसे थे। पिता महादेव सहाय एवं माता कमलेश्वरी देवी की तीन बेटियाँ और दो बेटे तह जिनमें से वह सबसे छोटे थे। प्रारम्भिक शिक्षा उन्हीं के गाँव जीरोदाई में हुयी थी। पढ़ाई की तरफ इनका रुझान बचपन से ही था। 1896 में वह जब पांचवी कक्षा में थे तब बारह वर्ष की उम्र में उनकी शादी राजवंशी देवी से हुयी।
आगे पढ़ाई के लिए कलकत्ता विश्वविध्यालय में आवेदन पत्र डाला, जहाँ उनका दाखिला हो गया और 30 रूपये महीने की छात्रवृति मिलने लगी। उनके गाँव से पहली बार किसी युवक ने कलकत्ता विश्वविध्यालय में प्रवेश पाने में सफलता प्राप्त की थी जो निश्चित ही राजेन्द्र प्रसाद और उनके परिवार के लिए गर्व की बात थी। डिग्री की पढ़ाई पुरी की, जिसके लिए उन्हें गोल्ड मैडल से सम्मानित किया गया। इसके बाद उन्होंने कानून में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और फिर पटना आकर वकालात करने लगे जिससे इन्हें बहुत धन और नाम मिला।
बिहार में अंग्रेज सरकार के नील के खेत थे। सरकार अपने मजदूरों को उचित वेतन नहीं देती थी। 1917 में गांधीजी ने बिहार आकर इस समस्या को दूर करने की पहल की। उसी दौरान डा. राजेन्द्र प्रसाद उनसे मिले और उनकी विचारधारा से प्रभावित हुए। 1919 में पुरे भारत में सविनय आन्दोलन की लहर थी। गांधी जी ने सभी स्कूल, सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने की अपील की, जिसके बाद डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी नौकरी छोड़ दी।
चम्पारण आन्दोलन के दौरान राजेन्द्र प्रसाद, गांधीजी के वफादार साथी बन गये थे। गांधी जी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने अपनी पुरानी विचारधाराओ का त्याग कर दिया और एक नई उर्जा के साथ आन्दोलन में भाग लिया। 1931 में कांग्रेस ने आन्दोलन छेड़ दिया। इस दौरान डा. राजेन्द्र प्रसाद को कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। इस दौरान वह गिरफ्तार हुए और नजरबंद कर दिए गये।
भले ही 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुयी, लेकिन सविधान सभा का गठन उससे कुछ समय पहले ही कर लिया गया था जिसके अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद चुने गये थे। सविधान पर हस्ताक्षर करके डा. राजेन्द्र प्रसाद ने ही इसे मान्यता दी थी। भारत की राष्ट्रपति बनने से पहले वह एक मेधावी छात्र, जाने माने वकील, आन्दोलनकारी, सम्पादक, राष्ट्रीय नेता, तीन बार अखिल भारतीय कमेटी के अध्यक्ष, भारत के खाद्य मंत्री एवं कृषि मंत्री और सविधान सभा के अध्यक्ष रह चुके थे।
26 जनवरी 1950 को भारत को डा. राजेन्द्र प्रसाद के रूप में प्रथम राष्ट्रपति मिल गया। 1962 में ही अपने पद को त्याग कर वे पटना चले गये और जन सेवा कर जीवन व्यतीत करने लगे। 1962 में अपने राजनितिक और सामाजिक योगदान के लिए सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से नवाजा गया था। 28 फरवरी 1963 को डा. राजेन्द्र प्रसाद का निधन हो गया।
उनके जीवन से जुडी ऐसी अनेक घटनाये है जो प्रमाणित करती है कि डा. राजेन्द्र प्रसाद बड़े दयालु और निर्मल स्वभाव के व्यक्ति थे। भारतीय राजनीति के इतिहास में उनकी छवि एक महान और विन्रम राष्ट्रपति की है। 1921 से 1946 के दौरान राजनितिक सक्रियता के दिनों में डा. राजेन्द्र प्रसाद पटना स्तिथ बिहार विद्यापीठ भवन में रहे थे। मरणोपरांत उसे “राजेन्द्र प्रसाद संग्रहालय” बना दिया गया।