उतरः- 16 फरवरी 1962 को भोजपुरी भाषा की पहली फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ का पटना के ऐतिहासिक शहीद स्मारक पर मुहूर्त संपन्न हुआ।
चलिए अब पूर्वांचल फिल्म (पॉलीवुड सिनेमा) सफर में:- भोजपुरी सिनेमा १९६२ से शुरू हुई लेकिन भोजपुरिया छोक हिंदी फिल्मो में बहुत पहले से दिया जा रहा है जो आज तक बरकरार है। १९६१ में विश्वनाथ शाहाबादी जो बिहार के एक बड़े व्यवसायी थे और जिन्हें भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भोजपुरी में फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया थाय वे बम्बई पहुँचे। दादर में वे प्रीतम होटल में ठहरे जो पुरबियों का अड्डा था यहीं उनकी मुलाकात नजीर हुसैन से हुई जो वर्षों से एक पटकथा तैयार करके भोजपुरी फिल्म बनाने की जुगत में थे और इस तरह जनवरी १९६१ में नजीर हुसैन के नेतृत्व में ‘गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबो’ के निर्माण की योजना बनी। १६ फरवरी १९६२ को मुहूर्त संपन्न हुआ। यह फिल्म अद्भुत रूप से सफल हुई। कर्णप्रिय धुनों में गूंथे ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो..’, ‘सोनवा के पिंजरा में बंद भइल हाय राम…’, ‘काहे बंसुरिया बजवल….’ जैसे इस फिल्म के गीतों से लगभग उत्तर भारत का गांव-गांव गूंज उठा। पांच लाख की पूंजी से बनी इस फिल्म ने लगभग 75 लाख का व्यवसाय किया।‘ इसके बाद तो भोजपुरी फिल्मों की लाइन लग गई। १९६२ से १९६७ के बीच १९६४ में ‘बिदेसिया’ आयी जो भिखारी ठाकुर जी से सम्बंधित था, इस के बाद ‘लागी नाही छूटे राम’, ‘नइहर छूटल जाय’, ‘हमार संसार’, ‘बलमा बड़ा नादान’, ‘कब होइहें गवनवा’….‘सोलहो सिंगार करे दुलहिनिया’ बनीं। इसी दौर में ‘कमसार फिल्म्स’ के बैनर तले नजीर हुसेन की फिल्म ‘हमार संसार’ भी आई। लंबे अंतराल के बाद भोजपुरी फिल्मों का रंगीन दौर शुरू हुआ। भोजपुरी फिल्म निर्माण यह दौर 1977 से 1982 तक चला। ‘दंगल’, ‘बलम परदेसिया’, ‘धरती मइया’, और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ जैसी फिल्मों की सफलता ने पालीवुड सिनेमा का झंडा तेज गति से लहराया। पहले दौर में ‘बिदेसिया’ जैसी हिट फिल्म के निर्माता बच्चूभाई शाह ने भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म ‘दंगल’ बनाई। फिल्म के पात्र और कथा लगभग वही थी। लेकिन रंग के अलावा मिस इंडिया प्रेमा नारायण भी इस फिल्म में अतिरिक्त आकर्षण थी। यह वो समय था जब हिंदी फिल्म जगत में शोले अपना परचम लहरा चुकी थी। ‘दंगल’ की सफलता के बाद नजीर हुसैन ने ‘कमसार फिल्म्स’ के अपने बैनर तले पूना फिल्म इंस्टीटयुट से अभिनय के स्नातक राकेश पांडेय को लेकर ‘बलम परदेसिया’ नाम की फिल्म बनाई। इसमें चित्रगुप्त का संगीत का जादू सिर चढ़ कर बोला। मो. रफी की आवाज में ‘गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उडि़-उडि़ जाये…’ से उतर भारत की गलियां गुलजार हुईं। इसके बाद आरा के रहनेवाले सिनेमा वितरक अशोक चंद जैन की फिल्म ‘धरती मइया’ ने स्वर्ण जयंती और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ ने हीरक जयंती मनाई। यह फिल्म पटना के अप्सरा सिनेमा घर में 30 सप्ताह तक चली। मुबई के मशहूर सिनेमा घर ‘मिनवा‘ में चार सप्ताह तक हाउसफुल चली। जानकार बताते है कि भोजपुरी फिल्म की यह पहली है जिसका प्रदर्शन माॅरीशस में हुआ और अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए इसका चयन किया गया। एक रिपोर्ट में अशोक चंद जैन बताते हैं कि 20 फरवरी से 28 फरवरी तक माॅरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व भोजपुरी सम्मेलन में इसका प्रदर्शन हुआ। इसके बाद आरा के रहनेवाले सिनेमा वितरक अशोक चंद जैन की फिल्म ‘धरती मइया’ ने स्वर्ण जयंती और ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ ने हीरक जयंती मनाई। यह फिल्म पटना के अप्सरा सिनेमा घरो में 30 सप्ताह तक चली। मुबई के मशहूर सिनेमा घर ‘मिनवा‘ में चार सप्ताह तक हाउसफुल चली। ऐसा दावा किया जाता है कि भोजपुरी फिल्म की यह पहली है जिसका प्रदर्शन माॅरीशस में हुआ और अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए इसका चयन किया गया। अशोक चंद जैन बताते हैं कि 20 फरवरी से 28 फरवरी तक माॅरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व भोजपुरी सम्मेलन में इसका प्रदर्शन हुआ। 1983 में मोहनजी प्रसाद ने ‘हमार भौजी’, 1984 में राज कटारिया की ‘भैया दूज’, 1985 में लालजी गुप्त की ‘नइहर की चुनरी’ और मुक्तिनारायण पाठक की ‘पिया के गांव’, 1986 में लक्ष्मण शाहाबादी की पत्नी रानी श्री द्वारा प्रस्तुत ‘दूल्हा गंगा पार के’, जैसी भोजपुरी फिल्म आई । भोजपुरी सिनेमा के रजत जयंती वर्ष 1987 मे मुक्तिनारायण पाठक की फिल्म ‘पिया के प्यारी’ आई। जिसका गीत ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया हे रे सखी सैंया के बोलाइ द’ सफलता का परचम लहराया। नब्बे का दशक भोजपुरी फिल्मों के सन्नाटे का दौर रहा है। 1993 में आकाश जोगी की फिल्म ‘महुआ’ में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने भी अभिनय किया। जनता ने इसे कुछ खास पसंद नहीं किया।
2000 के समय भोजपुरी फिल्म के अगुआ निर्माता निर्देशक मोहन जी प्रसाद माने जाते हैं। फिलहाल ‘सैंया हमार’, ‘सैंया से करि द मिलनवा हे राम’ और ‘गंगा जइसन माई हमार’ जैसी फिल्म बनी लेकिन कब आयी और चली गयी यह समझ में नहीं आया।
१९९२ से २००२ तक हालात ये हो गये कि कब फिल्म बनी और कब पर्दे से उतर गयी, इसका पता ही नहीं चलता था। ये समय भोजपुरी सिनेमा के लिए सबसे बुरा रहा। २००२ के बाद का समय पालीवुड सिनेमा के लिए बहुत महत्वपूर्ण होने वाला था।
कई बर्षो से संघर्ष कर रहे मल्टी स्टार और भोजपुरी फिल्म के ३ सरे दौर के सबसे बड़े आर्टिस्ट के रूप में उभरे मनोज तिवारी जी। नब्बे के दशक से २००२ तक लगभग पालीवुड सनीमा थप रही, उस समय मनोज तिवारी जी की कई एल्बम आई जिस्मी से कई काफी सुपर हिट रही। जिसके चलते भोजपुरी पुरे राष्ट्र के समक्ष खड़ा हो गयी, जिसका श्रेह सिर्फ मनोज तिवारी को जाता है।
2003 में मनोज तिवारी की पहली फिल्म ससुरा बड़ा पैसावाला के सुपर-डुपर हिट होने के बाद भोजपुरी सिनेमा का कायाकल्प हो गया। 2003 से भोजपुरी सिनेमा का नया युग या ३ सारा दौर शुरू हो गया। आइए, अब इस दौर के बारे में बात की जाए। 2003 में मनोज तिवारी और रानी चटर्जी अभिनीत फिल्म ससुरा बड़ा पैसावाला सुपर-डुपर हिट हुई। अभिनेता और गायक मनोज तिवारी को भोजपुरी अस्तित्व माना जाता है हिंदी फिल्मो से अपनी जिंदगी शुरू करने वाले आर्टिस्ट रवि किशन, हिंदी फिल्म में असफल हो रहे थे। इसी समय मोहन जी प्रसाद ने रवि किशन को लेकर सैयां हमार और सैयां से कर द मिलनवा हे राम, दो फिल्में बनायी। दोनों फिल्मों ने अच्छा बिजनेस किया लेकिन मोहन जी प्रसाद की ही अगली फिल्म पंडित जी बताईं ना वियाह कब होई, सुपर-डुपर हिट हुई। अब तो भोजपुरी फिल्म को मनोज तिवारी और बाद में रवि किशन जैसे स्टार मिल गए। इन सबके बिच हम कुनाल सिंह जी को अनदेखा नहीं कर सकते क्यों की येही एक एसे अभिनेता थे जो तीनो दौर में सक्रीय रहे है
इसलिए ये भोजपुरी के महानायक है। ससुरा बड़ा पैसावाला, पंडित जी बताई बियाह कब होई जैसी फिल्मों के बाद हिंदी फिल जगत के कई बड़े नाम पालीवुड सिनेमा में नजर आये। अजय देवगन और मनोज तिवारी की फिल्म धरतीपुत्र आई, अमिताभ बच्चन और मनोज तिवारी की जोड़ी ने गंगा एवं गंगोत्री आई, जैकी श्राॅफ और रवि किशन की जोड़ी में बलिदान, मनोज तिवारी और जैकी श्राॅफ की जोड़ी में हम हई खलनायक, मनोज तिवारी और मिथुन चक्रवर्ती के जोड़ी में भोले शंकर जैसी यादगार फिल्में आयी। बड़े निर्माता-निर्देशक सुभाष घई, सायरा बानो और राजश्री प्रोडक्शन जैसे ग्रुप भोजपुरी फिल्में बनाने के लिए अग्रसर हुए। मनोज तिवारी और रवि किशन के अलावा भोजपुरी सिनेमा के आकाश पर कई नये हीरो चमके। दिनेश लाल यादव निरहुआ, विनय आनंद ,पवन सिंह , पंकज केसरी, कृष्णा अभिषेक, खेशारी लाल और नयी हिरोइनों रानी चटर्जी, नगमा, भाग्यश्री, पाखी हेगड़े, रिंकू घोष, मोनालिसा,सुभी शर्मा जैसे कलाकारों की दस्तक से भोजपुरी सिनेमा ने रफ्तार पकड़ लिया। आज भोजपुरी सिनेमा का झंडा जितना तेजी से लहर रहा है उन सबके बिच भोजपुरी भाषा को अश्लीलता की बदनामी ढोनी पर रही है गीतों में अश्लीलता और भोंडापन भरता जा रहा है। संगीत ज्यादातर घिसे-पीटे और कॉपी-पेस्टद टाइप के हैं। कई ऐसे गीतों को दर्शकों पर थोपा जाता है, जिसका फिल्म की कहानी से कोई लेना-देना नहीं होता। इन्हें देख के लगता है कि किसी साफ कपड़े में कोई पैबंद चिपका दिया गया है। अश्लीलता का शुरुआत रवि किशन, निरहुआ, पवन सिंह से शुरु हुआ जो की अब तक चल रहा है। भोजपुरी है कुछ भी चल जाएगा का फार्मूला अभी भी चल रहा है। भेड़-चाल अभी भी जारी है। अधिकांश फिल्मेंा पूर्वाग्रह से आज भी ग्रसित है। अभी भी फिल्मों में खलनायक रेप करते हैं और लाला जी मुंशीगिरी करते दिख रहे हैं। भोजपुरी सिनेमा के लोगों को इस बात का ज्ञान कब होगा कि हमलोग दूसरी सहस्राब्दी के दूसरे दशक की शुरुआत कर चुके हैं। समय के साथ चलना पड़ेगा। भोजपुरी सिनेमा के शुरुआती दौर में गीतकार शैलेंद्र, मजरूह सुल्तानपुरी, अनजान ….. बीच के दौर में लक्ष्मगण शाहाबादी ने जो गीत लिखे, वो आज भी गुनगुनाये जाते हैं। उन लोगों ने मनोरंजन के साथ ही सामाजिक सरोकारों का भी निर्वाह किया। समाज के प्रति जवाबदेह रहे। लेकिन अब ये सब खत्म होता दिख रहा है। रोमांस के नाम पर हिरोइन की ढ़ोंढी दिखाने में आज के ज्यादातर फिल्मकारों को अच्छा लगता है। भोजपुरी क्षेत्र की राज्य सरकारें भी भोजपुरी फिल्मों को लेकर उदासीन रवैया अपनाये हुए हैं। जिन सिनमाघरों में भोजपुरी फिल्में दिखायी जाती हैं, उनकी तकनीकी व्यवस्था ठीक नहीं है ……. लोग गाने को कान से नहीं, आंख से सुनते हैं – आखिर ऐसा क्यों? इससे सरकार को कोई मतलब नहीं है झारखण्ड/यूपी/बिहार की सरकारे जगरूप कब होंगी। गैर भोजपुरी भाषी डायरेक्टर/प्रोडयूसर/एक्टर भोजपुरी सिनेमा बनाते है, उनको तो भोजपुरी अस्तित्व से मतलब नहीं हैद्य भोजपुरी फिल्म के उत्थान के लिए सरकारी सहयोग बहुत जरूरी है। साथ ही सरकार को एक ऐसी समिति का निर्माण करना होगा, जो कि भोजपुरी सिनेमा पर नजर रखे, अश्लीलता की परिभाषा और सीमा तय करे। अश्लील फिल्म बनाने वालों का खुल के विरोध करें और जो अच्छी फिल्म बना रहे हैं, उन्हें सम्मानित करें। इसके अलावा वो फिल्म को व्यापक स्तर पर और विश्व स्तर पर प्रचार-प्रसार करें। फिल्म में भाषा की गड़बड़ी रोकेने के लिए भाषाविद रखे जाएं। जो भी भोजपुरी फिल्मों में काम कर रहे हैं या करना चाहते हैं, वो भोजपुरी भाषा और उसकी टोन सीखें। विश्व स्तर पर भोजपुरी की पहचान भोजपुरी फिल्मों से ही मिली है। अब भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी समाज की और भोजपुरिया लोगों की जो तस्वीर पेश कर रही है, उसी रूप में और उसी नजर से दुनिया हम लोगों को देख भी रही है। आज के भोजपुरी एल्बम इंडस्ट्री ने भोजपुरी का मतलब ही अश्लील बना दिया है।
(कुछ त्रुटी हुई हो उसके लिए क्षमा चाहते है)