भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत श्याम श्वेत फिल्म से…

फिल्मों में भोजपुरी का आगमन यूं तो 1932 में बनी दूसरी बोलती फिल्म इंदरसभा से हो गया था। सांगीतिक फिल्म होने के नाते उसमें 72 गाने रखे गए थे। जिनमें दो भोजपुरी के थे। हम आज भी इस फिल्म के गीत ‘सुरतिया दिखाय जाओ ओ बाँके छैला’ और ‘ठाढ़े हूँ तोरे द्वार, बुलाले मोरे साजन रे’ के तौर पर सुन सकते हैं। निर्माता निर्देशक जेजे मदन ने फिल्म इंदरसभा के सहारे सबसे ज्यादा गाने वाली फिल्म का विश्व रिकॉर्ड भी बनाया। भोजपुरी से जुड़े लोग इस रिकॉर्ड के साथ अपने आप को जोड़ कर गौरवान्वित हो सकते हैं। जेजे मदन के सहारे फिल्मों में भोजपुरी का आगमन तो हुआ लेकिन एक पूर्ण भोजपुरी सिनेमा के बनने का सफर 1962 में पूरा हुआ। जिसके लिए संघर्षरत व्यक्तित्व को भूलना आसान नहीं।

एक आंकड़े की तरफ ध्यान दें तो पाते हैं कि भारत कि पहली बोलती फिल्म से लेकर भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत के बीच में 103 गुजराती, 59 पंजाबी, 26 असमी और 18 उडि़या फिल्में बन चुकी थी। पंजाब भी इस दिशा में 1935 से प्रयासरत था। बंगला, तमिल, मलयालम, कन्नड भाषा में क्षेत्रीय सिनेमा पहले से ही उच्च स्थान पर पहुँचने को लालायित था। ऐसे में भोजपुरी सिनेमा के लिए क्षेत्रीय सिनेमा के तौर पर स्थापित होने की राह आसान नहीं थी।

जब सिनेमा में महिला संघर्ष चल रहा था तब बनारस की बेटी जद्दनबाई ने महबूब खान की फिल्म ‘तकदीर 1943’ में अपने भोजपुरी भाषी होने के नाते एक गाना रखने को मजबूर किया। यह महिलाओं द्वारा अपनी संस्कृति भाषा बोली के लिए किए संघर्ष के लिए भी याद किया जा सकता है। फिल्म तकदीर में प्रयोग भोजपुरी ठुमरी ने इतनी लोकप्रियता हासिल की कि उनके मन में पूरी भोजपुरी फिल्म को लेकर खयाल आया। लेकिन उनकी यह कसक अधूरी रह गयी। उल्लेखनीय है कि हिन्दी सिनेमा की प्रथम महिला संगीतकार जद्दनबाई मशहूर अदाकारा नर्गिस की मां हैं। आजादी के बाद बदलते भारत में सिनेमा भी बदल।. फिल्म शिक्षण संस्थान से लेकर फिल्म आर्काइव तक बनाए गए। सिनेमा में जहाँ व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास चल रहे थे वहीं आजाद भारत में नव निर्वाचित राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इस ओर एक सराहनीय काम किया। यह वही दौर था जब गांधी जी सिनेमा को खराब चीज मानते थे। दिल्ली में आयोजित एक फिल्म समारोह में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने सम्बोधन में अपने भोजपुरी भाषी होने का दायित्व निभाते हुए भोजपुरी सिनेमा की दिशा में काम करने का फिल्मकारों से आह्वान किया।

राजेंद्र प्रसाद ने यह भी माना कि उन दिनों भले ही भोजपुरी साहित्यिक रूप से समृद्ध नहीं थी लेकिन सांस्कृतिक विविधता इतनी विशाल थी जिससे पूरा देश लाभान्वित हो सकता था। उसी समारोह में बैठे भोजपुरी माटी के खाँटी लाल, हिन्दी सिनेमा में संवाद अदायगी के पुरोधा, उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा से सटे गाजीपुर के निवासी नजीर हुसैन काफी प्रभावित हुए. इसी समारोह में वह अपनी फिल्म ‘नई दिल्ली’ के लिए राष्ट्रपति पुरष्कार पा चुके थे। डॉ राजेंद्र के उद्बोधन से प्रभावित नजीर ने समारोह में राष्ट्रपति को भरोसा दिलाते हुए कहा कि ‘डॉक्टर साहब समझीं हम आझे से ई दिशा में प्रयत्शील हो गइनी जा, रउवा शुभकामना करी’।.

यहीं से शुरूआती भोजपुरी फिल्मों की वास्तविक नींव पड़ी। नजीर की अपनी अभिनय और लेखन क्षमता के बदौलत ही फिल्मकार बिमल रॉय ने उन्हे अपना सहयोगी बनाया था। बिमल राय की दो बीघा जमीन के लेखक नजीर साहब ही थ।. लेखन की प्रबलता तो उनकी इसी फिल्म से जानी जा सकती थी। इसी सहारे उन्होने पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मईया टोहे पियारी चढ़इबो की पटकथा लिखी और सबसे पहले बिमल रॉय के पास गए। बिमल दा को कहानी बहुत पसंद आई लेकिन उन्होंने इसे हिन्दी में बनाने को कहा। नजीर साहब ने अगर उस दिन अपनी कहानी के साथ बिमल दा से समझौता कर लिया होता तो भोजपुरी में बनी पहली फिल्म की तिथि कोई दूसरी हो सकती थी। उनका धैर्य उनके ही एक कथन में दिखता है ‘ई फिलिमिया चाहें जइहाँ बनो, बाकी बनी त भोजपुरिया में’। निर्माता की तलाश जारी थी। अपने सह कलाकार असीम से वह कई बार कह चुके थे कि ‘अरे असीमवा… मरदे केहुन मिल जाइत त कैसहू ई फिलिमिया बना लेइत’।

गौरतलब है कि उन्हे बंबई में कोई निर्माता नहीं मिला। भोजपुरी में धन आखिर कौन लगाए? जल्द ही कोयला व्यासायी और थियेटर हॉल मालिक विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी के तौर पर उन्हे निर्माता मिल गया।फिल्म के बनने के क्रम में कई रोचक पहलू भी सामने आते हैं। जिन्हें हम अविजित घोष की किताब सिनेमा भोजपुरी में पढ़ सकते हैं। बंबई के दादर स्थित प्रीतम होटल से पूरी फिल्म का रूप रंग खाका तैयार हुआ। नजीर ने निर्देशक कुन्दन शाह को बनाया जो खुद बनारस से ताल्लुक रखते थे। 1 लाख पचास हजार का बजट निर्धारित हुआ लेकिन बनते-बनते यह आंकड़ा 5 लाख को छू गया। लेकिन शाहाबादी ने इसकी फिक्र न करते फिल्म को पूरा किया। अपनी सफलता की ऊँचाई चढ़ने को बेताब फिल्म 80 लाख का कारोबार की। दहेज, बेमेल विवाह, विधवा विवाह, सामंती विचार, शिक्षा आदि के प्रश्नों पर पर्दे पर चित्रित होती फिल्म के कलाकारों से मिलने के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद ने खत लिखा। 1 मार्च 1963 को मिलने का समय तय हुआ लेकिन भोजपुरी सिनेमा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ राजेंद्र प्रसाद का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। 28 फरवरी को उनकी मृत्यु हो गयी। जैसे ही फिल्मकारों को पता चला, अगले दिन उन्हांेने फिल्म का प्रदर्शन बंद रखा। जो सच्ची श्रद्धांजली थी। इसके बाद बिदेसिया, हमार संसार, गंगा किनारे मोरा गाँव रे, कब होई गवना हमार, दंगल, महुआ, आदि फिल्मों के साथ भोजपुरी सिनेमा बढ़ते क्रम में आज हमारे सामने है।

अनूप नारायण सिंह

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