भोजपुरी के पहले उपन्यासकार थे पं. रामनाथ पंडिय, जिनके उपन्यास बिंदिया को भोजपुरी का प्रथम उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है। इस प्रकार पांडेय जी भोजपुरी उपन्यास के इतिहास-पुरूष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी कृतियाँ जिनगी के राह और सतवंती भी चर्चा के केंद्र में रही है। मगर सन् 1994 में प्रकाशित महेंदर मिसिर एक ऐसा ऐतिहासिक व व्यक्तिपरक उपन्यास है, जिसने पहली बार मिसिर जी के संबंध में व्याप्त भ्रमों और किंवदंतियों को तोड़ा तथा उनके जीवन के सकारात्मक पक्षों को गंभीरता से उद्घाटित किया। बाद के उपन्यासकारों ने उन तथ्यों का अनुसरण भी किया। लेखक ने अपनी सफाई में स्पष्ट लिखा है – ‘इस उपन्यास के पात्रों के यथार्थ जीवन को तराशते वक्त मुझे प्रेमचंदजी की बात याद आ गई थी, जिसकी चर्चा उन्होंने अपने निबंध-संग्रह साहित्य का उद्देश्य में करते हुए कहा था – ‘यथार्थवाद का यह आशय नहीं है कि हम अपनी दृष्टि को अंधकार की ओर ही केंद्रित कर दें। अंधकार में मनुष्य को अंधकार के सिवा और सूझ ही क्या सकता है। बेशक, चुटकियाँ लेना, यहाँ तक कि नश्तर लगाना भी कभी-कभी आवश्यक होता है, लेकिन देहिक व्यथा चाहे नश्तर से दूर हो जाय, मानसिक व्यथा सहानुभूति और उदारता से ही शांत हो सकती है।’ यही वजह है कि महेंद्र मिसिर, ढेलाबाई और बाबू हलिवंत सहाय की जिंदगी में जो अंधकार-पक्ष थे, उनकी ओर मेरा ध्यान नहीं गया। ये लोग भी मानव थे। इसी से कुछ खामियाँ भी थी। ऊँचे-नीचे डग पड़ना स्वाभाविक था। जहाँ कहीं कदम फिसलते दिखा, पात्रों के संग सहानुभूति और उदारता का व्यवहार किया गया है। कम-से-कम बेपर्दा होने दिया गया है। बस उतना ही खुलापन दिखाया गया है जितना देखने से ये लोग मनुष्य प्रतीत हों, देवता नहीं।’
भोजपुरी के इस जीवंत गीतकार और पूरबी के बेताज बादशाह की रसिक मिजाजी तथा नोट छापने के धंधे के प्रति समाज में फैली किंवदंतियों और भ्रमों को तोड़कर उन्हें एक स्वाधीनता-सेनानी, कर्मठ योद्धा, राष्ट्रीय गीतकार व महान संगीत-साधक के रूप में प्रतिष्ठित करना उपन्यासकार का मकसद रहा है। नोट छापने का धंधा भी विदेशी शासन की अर्थव्यवस्था को नेस्तनाबूद करने की दिशा में एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था।
उपन्यास महेंदर मिसिर उस चरित्र की आजादी की दीवानगी और संगीत-साधना की बेजोड़ मिसाल पेश करता है। कहानी सन् 1858 से शुरू होती है। बाबू हलिवंत सहाय की जमींदारी और उस जमींदार से गुरू जैसा आदर-मान पाते शिवशंकर मिसिर और उनकी पत्नी गायत्री कुँअरि। धनी-मानी परिवार में मेंहदार के बाबा महेंद्र नाथ की कृपा से महेंद्र मिसिर का जन्म। गायन-संगीत की जन्मजात प्रतिभा। संगीत-प्रेमी हलिवंत सहाय के आकर्षण की केंद्र रही तवायफ ढेलाबाई को उठवाकर हलिवंत सहाय की कोठी में पहँुचाना। फिर उसके अधिकार के लिए हरसंभव सहयोग-संघर्ष। ढेलाबाई से नाराजगी होने पर केसरबाई के साथ प्रणय और संगीत-साधना। उधर स्वामी अभयानंद के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी। ब्रिटिश शासन की अर्थव्यवस्था को मटियामेट करने की गरज से जाली नोट छापने का अभियान। गिरफतारी, मुकदमा और कारावास की सजा। अंततः ढेलाबाई द्वारा निर्मित शिवमंदिर में जिंदगी की आखिरी यात्रा। महेंद्र मिसिर के व्यक्तित्व की पुनः पड़ताल करने के लिए उपन्यास मजबूर करता है और उनके चरित्र को नए सिरे से व्याख्यायित-विश्लेषित करने की दिशा में शोधार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। प्रवाह, पठनीयता व प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से उपन्यास बेजोड़ है।
महेंदर मिसिर के आमुख में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यासकार डाॅ. भगवतीशरण मिश्र ने लिखा है – ‘महेंद्र मिसिर स्वतंत्रता के इतिहास के एक उपेक्षित पात्र रहे हैं, जबकि उनका योगदान भारतीय आजादी के इतिहास में कम नहीं था। महल के चमकते कंगूरे को तो सभी लोग देखते हैं, पर नींव की ईंट पर किसका ध्यान जाता है? महेंद्र मिसिर जैसे कितने लोग नींव के पत्थर बन गए। उन लोगों को चमकाकर हीरा बनानेवालों की भरी कमी है। रामनाथ पांडेय जी ने यही किया है। कम-से-कम एक नींव के पत्थर को खूबसूरती से तराशकर इन्होंने हीरा तो बना ही दिया है। उपन्यास पढ़कर मिसिर जी के बारे में, उनके धनी-मानी परिवार के बारे में, लालन-पोषण की प्रक्रिया के बारे में, उनके शौक और आदत के बारे में, उनकी निर्भयता, त्याग और बलिदान के बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। उन्होंने देश की आजादी की खातिर जो संघर्ष किया है वह तो पांडेय जी की कलम का स्पर्श पाकर मूर्त हो ही गया है। लेखक बड़ी चतुराई से कबीर और रैदास का प्रभाव भी महेंद्र मिसिर पर डालने में सफल हुआ है। कबीर सपने में आकर महेद्र मिसिर को अपने लक्ष्य की याद दिलाते हैं। रैदास के कर्म की महत्ता पर भी रोशनी डालते है। तवायफ के कोटे पर भटक गए महेंद्र मिसिर के पाँव गंगा तट पर लौटते हैं और गंगा मैया की धार उनको पवित्र कर देती है। वे फिर अपने साधना-पथ पर बढ़ जाते हैं। उनकी साधना के दो किनारे हैं – गीत-संगीत-साधना और देश की आजादी। दोनों किनारे समानांतर होकर भी समानांतर नहीं हैं। एक सिक्के के दो पहलू की तरह एक-दूसरे के पूरक हैं। कहना कठिन है कि महेंद्र मिसिर गीत-संगीत-साधक के रूप में बड़े हैं या स्वतंत्रता-सेनानी के रूप में। शायद दोनों ही रूप में।’
तभी तो अभयानंदजी से जब देश को जल्दी ही आजदी मिलने की सूचना महेंद्र मिसिर को मिलती है तो वह अपने जीवन के अंतिम दिनों में पत्नी को बुलाकर कहते हैं – ‘हमरा पास जवन धन-दउलत बा, तोहरा सामने बा आ तोहार बा, बाकिर हमार असली धन इहे पोथी बाड़ी सन। हम अपना हिरदया के मथ-मथ के जवन रतन पवलीं, तवना के एह पोथिन में लिख-लिख के धऽ देले बानीं। तूँ जान लऽ, इहे महेंदर मिसिर के असली पहचान बाड़न सन। एकनी के जोगा के रखिहऽ आ जग तोहरा एह दुनिया से आए के समय आवे, त एकनी के अपना बेटा के सहेज के रखे खातिर दे दिहऽ। कबहीं एकनी के बड़ा कीमत लागी।’ (‘मेरं पास जो धन-दौलत है, तुम्हारे सामने है और तुम्हारे लिए है, मगर मेरी असली दौलत ये पोथियाँ हैं। मैंने अपने हृदय का मंथन कर जो रत्न पाए हैं, उन्हें ही इन पोथियों में लिख-लिखकर रख दिया है। तुम्हें जानकारी के लिए बता दूँ, यही महेंद्र मिसिर की असली पहचान है। इन सबको सँजोकर रखना और जब इस दुनिया से तुम्हारा कूच करने का वक्त आ जाय तो इन्हें सहेजकर रखने के लिए अपने बेटे को दे देना। कभी इनकी बड़ी कीमत आँकी जाएगी।’)
उपन्यास में लेखक ने महेंद्र मिसिर के गीत-संगीत-साधक, स्वातंत्र्य-सेनानी व्यक्तित्व के साथ ही उनके सच्चे प्यार को गहरे से रेखांकित किया है। जेल की सजा पूरी कर महेंद्र मिसिर जब बाहर आते हैं तो उन्हें ढेलाबाई की गंभीर बीमारी की खबर सीधे उनकी कोठी में जाने को विवश कर देती है। वहाँ मिसिर जी न सिर्फ ढेलाबाई से अपने पावन प्रणय का इजहार करते हैं, बल्कि राजनीतिक गुरू अभयानंद से वचनवद्धता के बावजूद नोट छापने के उद्देश्य का भी संकेत करते है। ढेलाबाई के साथ मिसिर जी के आखिरी संवाद की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
‘ढेलाबाई के आँख से टप्-टप्ं टपके लागल।
‘ढेला बाई, तूँ रोवत बाडू? हँसऽ, खूब दिल खोल के हँसऽ। आज सब कुछ साफ भऽ गइल। सभे जान गइल, ढेलाबाई के जिनगी महेंदर मिसिर बिना अधूरा रहे आ महेंदर मिसिर के ढेला बिना। हम-तूँ कबहीं मरब ना, ढेला!’ महेंद्र मिसिर कहलन।
‘साँचो?’ ढेला पुछली।
‘हँ ढेला, अंतिम विदाई के घड़ी हम तोहरा के भरमावे के नइखीं चाहत। हमार आ तोहार नाँव लोग इयाद करी। हम नोट काहे छापत रहीं, ई बात जाने खातिर तोहार मन छटपटा के रह गइल। आज हम तोहरा सामने अइलो पर नइखीं बता सकत। हम बिबस बसनीं। अपना गुरू के वचन दे चुकल बानीं। बस एतने जान के अंतिम घड़ीं संतोस करऽ कि महेंदर मिसिर अपना भा अपना परिवार खातिर नोट ना छापत रहलन। ओकरा पाछा बड़हन उद्देश्य रहे।’ – महेंदर मिसिर कहलन।
‘मिसिर बाबा! अपने पर हमरा बिसवास बा।’ – ढेलाबाई कहली।
(‘ढेलाबाई की आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे।
‘ढेलाबाई, तुम रो रही हो? हँसो, खूब दिल खोलकर हँसो! आज सब कुछ साफ हो गया। सबको पता चल गया, ढेलाबाई की जिंदगी महेंद्र मिसिर के बिना अधूरी है और महेंद्र मिसिर की ढेला के बिना। हम दोनों कभी नहीं मरेंगे, ढेला!’ महेंद्र मिसिर ने कहा।
‘सचमुच?’ ढेला ने पूछा।
‘हाँ ढेला! अंतिम विदाई की घड़ी में मैं तुम्हें भ्रम में नहीं रखना चाहता। मेरा और तुम्हारा नाम लोग याद रखेंगे। मैं नोट क्यों छपता था, इस बात को जानने के लिए तुम्हारा मन छटपटाकर रह गया था। आज मैं तुम्हारे सामने आने पर भी बता नहीं सकता। मैं विवश हूँ। अपने गुरू को वचन दे चुका हँू। बस इतनी ही जानकारी हासिल कर अंतिम क्षण संतोष करो कि महेंद्र मिसिर अपने या अपने परिवार के लिए नोट नहीं छाप रहे थे। उसके पीछे बहुत बड़ा उद्देश्य छिपा था।’ महेंद्र मिसिर ने कहा।
‘मिसिर बाबा! आप पर मुझे पूरा विश्वास है।’ ढेलाबाई ने कहा।)
आखिरी अध्याय में महेंद्र मिसिर और भिखारी ठाकुर की आत्मीय बातचीत के बहाने अपने समय की दो महान शख्सियतों की मानसिकता और सोच को गहरे से उद्घाटित किया गया है।
यह उपन्यास मिसिर जी की प्रतिभा की विलक्षणता और उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को सकारात्मक व तर्कपूर्ण ढंग से व्याख्यायित-विश्लेषित करने में काफी हद तक सफल रहा है।